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किसी ‘लंकेश’ की हत्या को एंटी मोदी कैंपेन का माध्यम क्यों बना देते हैं ये ‘पक्षकार’?

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‘बोल कि लब आजाद हैं तेरे, बोल कि जबां अब तक तेरी है… बोल कि सच जिंदा है अब तक… बोल जो कुछ कहने हैं, कह ले’… फैज के लिखे इन शब्दों के बड़े मायने हैं। ये शब्द उस दौर की सभी दमनकारी सत्ताओं के खिलाफ निकले थे। वर्तमान में भी ये शब्द अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और लोकतंत्र की ताकत के प्रमाण हैं। लेकिन भारत के लोकतंत्र की मजबूत नींव को लगातार नष्ट या कमजोर करने की साजिश हो रही है… लोकतंत्र की हत्या करने की कोशिश की जा रही है। 

दरअसल कर्नाटक की पत्रकार गौरी लंकेश की हत्या के विरोध में जब बुधवार को दिल्ली के प्रेस क्लब में पत्रकारों का जमावड़ा लगा तो स्पष्ट दिखा कि यह हत्या का विरोध नहीं, लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की सुरक्षा की लड़ाई नहीं… बल्कि विचारधारा की लड़ाई है। यहां जुटी भीड़ में पत्रकार इक्के दुक्के हों भी, लेकिन ‘पक्षकार’ अधिक थे। ये जाहिर हो गया कि यहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर लोकतांत्रिक मर्यादाओं से खिलवाड़ हो रहा था और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कठघरे में खड़ा करने की खुल्लमखुल्ला कोशिश थी।  

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विचारधारा के गुलाम तो पक्षकार ही होंगे, पत्रकार नहीं!
दरअसल जिन पत्रकारों को अपने एक साथी की हत्या के शोकसभा में एक मत होना चाहिए था और कानून व्यवस्था के नाम पर अपनी आवाज बुलंद कर विरोध किया जाना चाहिए था, वहां एक विचारधारा के गुलाम लोगों ने एक खास पार्टी और उसी पार्टी के छात्र नेता के हाथों में माइक नहीं थमाया बल्कि पत्रकारिता की मर्यादा को तार-तार किया और फिर पेशे की आबरु सौंप दी थी।

‘पक्षकारों’ ने पत्रकारों की मर्यादा का चीर हरण कर लिया!
ये साफ दिख रहा था कि किस तरह पत्रकारों की एक जमात किसी पार्टी की विचारधारा को जायज और दूसरी विचारधारा को नाजायज ठहराने की कोशिश कर रहा था। गौरी लंकेश को खुलेआम दक्षिणपंथ का विरोधी नहीं बीजेपी और आरएसएस का विरोधी बताया जा रहा है। पक्षकारों ने पॉलिटिशियन्स को मंच और माइक सौंप दिया। ये किस मंशा के तहत किया गया ये अब जाहिर हो चुका है। प्रेस क्लब के वर्तमान अध्यक्ष गौतम लाहिरी ने दूरदर्शन से अपनी बातचीत में स्वीकार किया कि उस दिन कुछ अनैतिक हुआ था। उन्होंने कहा, ”उस दिन जो कुछ भी हुआ वो गलत हुआ। एक पत्रकार के शोक सभा में हमारा क्लब एक खास पार्टी का अड्डा नहीं दिखना चाहिए था और भविष्य में ऐसा कभी नहीं होगा।”

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क्या हुआ जो पत्रकारों की अपनी सोच खत्म हो गई!
बुधवार को पत्रकारों के मंदिर में ही पहले पत्रकारिता का अपहरण किया गया और फिर सरेआम पत्रकारिता की हत्या भी कर दी गई। एक बड़े पत्रकार ने तो यहां तक कह दिया कि, मैं अपनी पार्टी से कहना चाहूंगा… अब सवाल ये कि इस ‘पक्षकार’ की कौन सी पार्टी है जिसके समर्थन में वे आवाज बुलंद कर रहे थे। इतना ही नहीं इसी ‘पक्षकार’ ने ‘गुंडा’ और ‘चमचों’ जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया। संदर्भ भले चाहे जो हो लेकिन इस ‘पक्षकार’ की तल्खी यह साबित करने को काफी थी कि वह देश के प्रधानमंत्री को एक विचारधारा का साबित करने की पुरजोर कोशिश कर रहे थे। उनकी बातों में न तो संवैधानिक पद की मर्यादा का कोई ख्याल था न ही बौद्धिकता का निवेश। सबसे खास यह है कि पत्रकारिता का यह प्रभावशाली चेहरा है लेकिन उनके द्वारा गुंडे और चमचे जैसे शब्दों का चयन क्या वाकई में पत्रकारिता ही है?

अब सवाल ये कि क्या पत्रकारों की भी पार्टियां होने लगी हैं? पत्रकार विचारधारा से तो हमेशा प्रभावित रहे, मगर ये पेशे पर हावी नहीं होता था लेकिन वर्तमान में क्या हम कह सकते हैं कि अब वो पेशा पर हावी नहीं होगा? 

क्या हुआ जो देश के पीएम ‘गुंडा’ और ‘भड़वा’ हो गए!
12 अगस्त, 2016 का ये वीडियो देखिये जब पीएम मोदी के खिलाफ वामपंथियों ने ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जिसपर किसी दूसरे देश में सजा हो जाती। लेकिन बोल कि लब आजाद हैं तेरे….

किसी भी प्रधानमंत्री या संवैधानिक पद पर आसीन व्यक्ति के लिए इस तरह की शब्दावली बिल्कुल अनुचित और निंदनीय है। लेकिन ये होता रहा और यही ‘पक्षकार’ तब खामोश रहे। जाहिर है प्रत्येक क्रिया की प्रतिक्रिया है सो दूसरी तरफ से यही हो रहा है। लेकिन पक्षकारों को सोचने की जरूरत क्यों नहीं महसूस हो रही कि यह इसलिए हो रहा है कि उन्होंने पहले किसी की गालियों पर आपत्ति दर्ज नहीं की। तर्क यह कि ये अभिव्यक्ति की आजादी है… ये उन ‘पक्षकारों’ को जरूर देखना चाहिए कि आखिर ऐसे शब्दों की स्वीकार करते हैं और निंदा के एक शब्द नहीं बोलते हैं, और जब उसी तौर तरीके का अब दूसरे इस्तेमाल कर रहे हैं तो फीटों तक उछलने लगते हैं।

बहरहाल, गौरी लंकेश और ‘पक्षकारों’ को अपशब्द कहना अगर गलत है तो देश के प्रधानमंत्री के विरुद्ध अपशब्दों का इस्तेमाल कहां से जायज है? साधारण सी बात है तब किसी को दिक्कत की बात नहीं लगी… इसलिए अब भी नहीं लग रही… आप किससे किसकी शिकायत करेंगे … विचारनीय है कि इसी अभिव्यक्ति की आजादी के लिए पत्रकारों का संघर्ष है? क्या ये उन्हें समझ आएगी?

क्या हुआ जो पत्रकार बीजेपी विरोधी और वामपंथी हो गए!
अर्धसत्य का आवरण ओढ़े और सियासी जुमलेबाजी का शोर मचाते ‘पक्षकारों’ ने पत्रकारिता की इतनी तौहीन की है जितनी शायद पहले कभी न हुई हो। पत्रकारों के सबसे सम्मानित क्लब के गेट से एक पत्रकार को “गेट आउट” कहा जा रहा था और पत्रकारिता की रक्षा में आये विचारधारा के नशे में गुलाम पत्रकार उस तथाकथित नेता (वामपंथी शेहला रशीद) की गुंडई पर वहां ताली बजा रहे थे।

क्या हुआ जो कांग्रेस सरकारों की नाकामी नजर नहीं आती!
क्या गौरी लंकेश की हत्या इसलिए हुई कि वह व्यवस्था-विरोधी थीं? गौरी का रुझान हिंदुत्ववादियों के विरोध में था तो क्या वह दक्षिणपंथियों के उभार के कारण मारी गईं? उसने नक्सलियों के लिए परेशानी खड़ी की, कर्नाटक सरकार के साथ मिलकर उसने कुछ नक्सलियों को वापस मुख्यधारा में जोड़ा था, तो क्या गौरी की हत्या इस वजह से हुई? बहुतेरे सवाल हैं। लेकिन मान लेते हैं कि गौरी ने हिंदू दक्षिणपंथियों के खिलाफ रुख अपना रखा था। लेकिन कर्नाटक में सरकार किसकी है? आखिरकार कांग्रेसियों के विरुद्ध बोलना इन बौद्धिक गुलामों को क्यों गंवारा नहीं हुआ?

Kerala RSS Worker Murder

राजकीय सम्मान से सवालों के घेरे में लंकेश की ‘निष्पक्षता’ !
यह बात बिल्कुल जानी हुई है कि गौरी के आमतौर पर कर्नाटक सरकार से और खासतौर पर मुख्यमंत्री सिद्धरमैया से अच्छे संबंध थे। क्या उन्होंने कभी अपने ऊपर हमले की आशंका जताते हुए कोई शिकायत दर्ज कराई? इतना ही नहीं एक व्यवस्था-विरोधी पत्रकार का अंतिम-संस्कार राजकीय सम्मान से किया गया, इस विडंबना पर आप क्या कहेंगे? क्या उसका व्यवस्था-विरोध चुनिंदा था कि इसकी व्यवस्था का तो विरोध करना है लेकिन उसकी व्यवस्था का विरोध नहीं करना है ?

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अपराध को विचारधारा के जामे में क्यों लपेट दिया गया?
गौरी लंकेश की हत्या कोई पहला मामला नहीं है जब किसी अपराध के बारे में फैसला विचारधारा के चश्मे पहनकर सुनाया जा रहा है इस सियासी जुमलेबाजी के शोर में यह सच दब गया है कि सूबे की सरकार की भूमिका संदेह के घेरे में है। 2014 में जब अखलाक की हत्या की तो फैसले विचारधारा के चश्मे पहनकर ही सुनाए जा रहे थे। इसी तरह हरियाणा के बल्लभगढ़ में जुनैद की हत्या में भी यही हुआ। सीट विवाद को बीफ विवाद में बदलकर केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने की साजिश की जाने लगी।

चौथे स्तंभ की असहिष्णुता के शिकार हैं पीएम मोदी!
बुधवार को प्रेस क्लब में ‘निष्ठावान’ पक्षकारों ने इसी को मुद्दा बना कर विचारधारा के एक सिपाही की हत्या के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को बिना जिरह बिना मुकदमा के सजा सुना दी। ठीक वैसे, जैसे 12 साल तक गुजरात दंगा मामले में प्रदेश के मुख्यमंत्री को सजा सुनाते थे अपनी फर्जी पत्रकारिता से। दरअसल ये फरेब गढ़ते रहे हैं गुजरात दंगे के मामले में भी और अब गौरी लंकेश के मामले में भी। कर्नाटक सरकार की नाकामी छिपाने और ये साबित करने की कोशिश हो रही है कि पीएम मोदी विचारधारा के खिलाफ चलने वाले पत्रकारों की हत्या करवा रहे हैं। अगर यह सच होता तो अब तक राजदीप, बरखा, सागरिका, तेजपाल रवीश, सुधीर, थापर और तीस्ता जैसों का तो नामोंनिशां नहीं होता।

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दरअसल इनके नाम इसलिए सामने आए हैं कि ये लोग उसी जमात से आते हैं जिन्होंने गुजरात दंगे में नरेंद्र मोदी के खिलाफ न सिर्फ आधारहीन पत्रकारिता की, बल्कि फर्जी तरीके से सबूत भी तैयार किए। बिलखते बच्चों की बनावटी तश्वीर, गर्भ से बच्चा निकालकर मारे जाने की रिपोर्ट जैसी खबरें इन्हीं ‘पक्षकारों’ द्वारा गढ़ी भी गई और इसे परोसी भी गई थी। लेकिन जस्टिस तेवतिया कमिटी और एसआईटी की रिपोर्ट में सब झूठा साबित हुआ। तत्कालीन कांग्रेस की सरकार ने तमाम तरह के तिकड़ किए और ये पक्षकार कांग्रेस के कुकर्मों का साथ देते रहे। लेकिन प्रधानमंत्री अपने नैतिक बल से तनिक भी नहीं डिगे। जाहिर तमाम दुष्प्रचार और साजिशों के बावजूद पीएम मोदी के प्रति जनता का विश्वास बना हुआ है। 

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