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संवैधानिक संस्थाओं को सियासत का मोहरा बना रही कांग्रेस

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जस्टिस लोया के मामले में मनमुताबिक फैसला न मिलने पर कांग्रेस बौखला गई है। हताशा में कांग्रेस संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता पर ही प्रश्नचिह्न लगा रही है। कांग्रेस के इस कदम को देश के लोकतांत्रिक इतिहास में इमरजेंसी से जोड़कर देखा जा रहा है, जब इंदिरा गांधी ने देश की संवैधानिक संस्थाओं को तहस-नहस करके रख दिया था। गौरतलब है कि देश में पिछले 46 महीनों से कांग्रेस कुछ विपक्षी दलों के साथ मिलकर संवैधानिक संस्थाओं को जिस प्रकार निशाना बना रही है, वैसा पहले कभी नहीं देखा गया।

आइये एक नजर डालते हैं कि कांग्रेस ने कब-कब मनमुताबिक फैसला न होने पर संवैधानिक संस्थाओं पर प्रश्न खड़े किए।

जस्टिस लोया मामले में सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर सवाल

जस्टिस लोया मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने निर्णय सुनाते हुए सख्त टिप्पणी की। सुप्रीम कोर्ट ने कहा, ”याचिकाकर्ताओं के वकील दुष्यंत दवे, इंदिरा जयसिंह और प्रशांत भूषण ने न्यायपालिका पर एक फौजदारी हमला शुरू कर दिया और एससी के तीन न्यायिक अधिकारियों को अविश्वसनीय बताया, जो लोया के साथ नागपुर गए थे, उनके साथ एक गेस्ट हाउस में रहे और कहा गया कि लोया दिल का दौरा पड़ने से मर गए। तर्कों के दौरान वकीलों ने एससी के न्यायाधीशों की ओर संस्थागत सभ्यता नहीं बनाए रखा और गलत आरोप लगाया। ऐसे मामलों में याचिकाकर्ताओं के खिलाफ अवमानना की कार्यवाही शुरू करना आदर्श होगा, जहां न्यायपालिका को बदनाम करने के लिए एक राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता अदालत में लाई जाती है।”

जाहिर है देश की सुप्रीम अदालत इस बात से आहत है कि उसे राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। हालांकि कांग्रेस ने अपनी कुत्सित कोशिश जारी रखी है। एक बार फिर कांग्रेस कुछ पार्टियों के साथमिलकर मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा के खिलाफ महाभियोग लाने का ढोंग कर रही है। जबकि कांग्रेस को पता है कि पूरे विपक्ष के साथ आने के बाद भी आंकड़ों के दृष्टिकोण से यह महाभियोग प्रस्ताव टिक नहीं पाएगा।

मक्का ब्लास्ट मामले में हाई कोर्ट के निर्णय पर सवाल

हिन्दू आतंकवाद का शब्द गढ़कर समूचे हिन्दू धर्म को बदनाम करने वाली कांग्रेस ने मक्का ब्लास्ट पर भी हाईकोर्ट के फैसले पर सवाल उठा दिए। कांग्रेस ने इस तथ्य को छिपाने की कोशिश की कि उसके द्वारा ‘क्रिएटेड’ गवाह ही अपने बयानों से मुकर गए। 

चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर उठा रहे सवाल

कांग्रेस ने हर हार के बाद ईवीएम में छेड़छाड़ के आरोप लगाए, लेकिन जब चुनाव आयोग ने राजनीतिक दलों को साबित करने की चुनौती दी तो राहुल गांधी समेत कोई भी कांग्रेसी नेता पहुंचा ही नहीं। मुख्य निर्वाचन आयुक्त अचल कुमार ज्योति के कार्यकाल में भी कांग्रेस ने पक्षपात के आरोप लगाए, हालांकि वह साबित नहीं कर पाई। पिछले चार साल में कई वाकये ऐसे आए जब कांग्रेस ने हारने के बाद चुनाव आयोग पर ठीकरा फोड़ दिया,लेकिन जीत पर चुप्पी साध ली।

रिजर्व बैंक पर सवाल उठाए

वर्ष 2016 में रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया और वित्त मंत्रालय के तालमेल से देश में डिमोनिटाइजेशन का निर्णय लिया गया। देश में भ्रष्टाचार पर प्रहार के लिए लिया गया निर्णय कांग्रेस को रास नहीं आया और इसे राजनीतिक मुद्दा बना लिया। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया पर ही सवाल खड़ा कर दिया, जबकि ये एक संवैधानिक संस्था है, जो स्वायत्त है। आरबीआई के गवर्नर रघुराम राजन का कार्यकाल खत्म हुआ तो भी कांग्रेस ने उनकी सेवा को बरकरार रखने के लिए सरकार पर अनैतिक दबाव बनाने का भी काम किया।

सीएजी को कठघरे में खड़ा किया
2 जी स्पेक्ट्रम घोटाला और कोयला घोटाला का जब से खुलासा हुआ तब से ही कांग्रेस ने संवैधानिक संस्था सीएजी पर ही हमला करना शुरू कर दिया। हालांकि जब जांच के दायरे में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह समेत कांग्रेस के कई सांसद और मंत्री आ गए तो कांग्रेस की बोलती बंद हो गई। दरअसल कांग्रेस ने सीएजी पर तब ये आरोप लगाए थे, जब केंद्र की सत्ता में खुद कांग्रेस की सरकार थी।

कांग्रेस ने सेना को भी नहीं बख्शा

कांग्रेस ने एक ओर जहां आर्मी चीफ बिपिन रावत को ‘सड़क का गुंडा’ कहा तो वहीं दूसरी ओर सर्जिकल स्ट्राइक पर सवाल उठाकर सेना का मनोबल तोड़ने की कोशिश की। इसी तरह जब सेना के मेजर गोगोई ने पत्थरबाज को जीप पर बांधकर सेना के दर्जनों जवानों की जान बचाई तो कांग्रेस ने इस पर भी राजनीति की। कांग्रेस ने अपनी ही सरकार के दौरान तत्कालीन आर्मी चीफ वीके सिंह की उम्र को लेकर विवाद खड़ा करने की कोशिश की। यहां तक कि उनपर देश में आर्मी रूल लगाए जाने की साजिश रचने तक के आरोप लगा दिए।

नीति आयोग के गठन पर भी उठाए सवाल

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब योजना आयोग की जगह नीति आयोग बनाने का निर्णय लिया तो कांग्रेस ने इसका पुरजोर विरोध किया। हालांकि बदलते वक्त के साथ देश को नीति आयोग जैसी संस्था की जरूरत है, क्योंकि देश में ‘कांपिटिटिव कॉपरेटिव फेडरलिज्म’ के सिस्टम को अमल में लाया गया है। इसमें राज्यों की सहभागिता बढ़ी है और योजनाओं के निर्माण और उसके बजट में भी राज्य सरकारों का सीधा संबंध स्थापित हो सका है।

 

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