Home गुजरात विशेष दलित युवक पर हमले की कहानी का झूठा सच

दलित युवक पर हमले की कहानी का झूठा सच

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एक बहुत दिलचस्प काम होता है- आसमान में सूराख ढूंढ़ना, जो कि असल में कुछ होता ही नहीं। यह काम उन लोगों की विशेष रुचि का होता है, जिन्हें दुनिया-जहान में न तो दूसरा कोई काम होता है और न ही कुछ और रचनात्मक कर पाने की योग्यता। कुछ यही हाल आजकल मोदी विरोधियों का है। ऐसा लगता है कि मानो उनके जीवन का एकमात्र मकसद नरेन्द्र मोदी पर कीचड़ उछालना, उनकी नीतियों की बिना कुछ सोचे-समझे आलोचना करते रहना ही रह गया है। दूसरी तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पास भी जीवन का एक ही मकसद रह गया है- हर तरह की आलोचना, आरोप से ऊपर उठकर केवल और केवल देश-हित में, देश-सेवा में जीवन अर्पित कर देना। केवल देशवासियों के विकास के लिए कर्मरत रहना।

यह जानना कितना खेदजनक है कि यह कुत्सित प्रयास किसी व्यक्ति-विशेष द्वारा नहीं, बल्कि मीडिया के एक धड़े द्वारा सोचे-समझे तरीके से, पूरे योजनाबद्ध रूप से हो रहा है। लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहे जाने वाले मीडिया से यह अपेक्षा की जाती है कि वह सच को निक्ष्पक्ष रूप से सामने लाने के कर्तव्य को निभाएगा, जबकि दुखद है कि हो इसका उलट रहा है।

दलित युवक की ‘हमले’ की कहानी

इसका ताजा उदाहरण है, कथित तौर पर गांधीनगर, गुजरात में घटी वह घटना, जिसमें कहा गया कि एक दलित की उसी के गांव के सवर्णों द्वारा इसलिए पिटाई कर दी गई, क्योंकि उसने मूंछे रखी हुई थी। जबकि जो सच उभरकर सामने आया है, वह यह है कि ऐसा उस युवक ने स्वयं ही योजनाबद्ध रूप से अपने दोस्तों के साथ मिलकर किया था, ताकि वह मीडिया की सुर्खियों में आ सके। उसकी यह घटिया योजना रंग भी लाई और मीडिया का एक धड़ा बिना सच की पड़ताल किए दौड़ पड़ा इस सतही अफवाह की कवरेज के लिए, ताकि वह ‘सबसे पहले हमारे यहां एक्सक्लूसिव’ का झंडा बुलंद करने। इनमें शामिल मीडिया हाउसेस थे- आज तक, द वायर, बीबीसी, सत्याग्रह, क्विंट।

बड़े मीडिया हाउसेस का गैर जिम्मेदाराना व्यवहार

इस अफवाह की शुरुआत की टाइम्स ऑफ इंडिया और इंडियन एक्सप्रैस द्वारा की गई थी। इन्होंने अपने यहां एक समाचार प्रमुखता से प्रकाशित किया, जिसमें कहा गया था कि गांधीनगर के लिंबोदरा गांव में कानून की पढ़ाई कर रहे एक दलित छात्र दिगंत महेरिया को उसी के गांव के सवर्णों ने काफी बुरी तरह से इसलिए पीट दिया, क्योंकि उसने मूंछें रखी हुई थीं। दिगंत महेरिया ने अपनी पुलिस रिपोर्ट में भी यही बयान देते हुए अपने गांव के ही सवर्ण भरत सिंह वाघेला को आरोपित किया। दिगंत ने यह तक कहा कि इन सवर्णों की यह भी धमकी थी कि मूंछें रखने का अधिकार केवल ऊंचा जाति वालों को ही है। ध्यान देने वाली बात यह है कि अभी हाल में भी दलित उत्पीड़न के कई मामले प्रकाश में आए थे, जिनकी पड़ताल अभी जारी है।

लकीर के फकीर पत्रकार

यह मामला क्योंकि दलित उत्पीड़न के अंतर्गत आता है, इसलिए नामजद व्यक्ति को पुलिस ने तुरंत गिरफ्तार कर लिया। टाइम्स ऑफ इंडिया तथा इंडियन एक्सप्रैस द्वारा इस अफवाह को प्रकाशित करने के बाद अन्य चैनलों व समाचार पत्रों ने ‘एक्यक्लूसिव’ कहकर इस से जुड़े झूठे समाचारों की की पूरी नहर ही बहा दी। ‘विश्वसनीय’ पत्रकार रवीश कुमार ने फेसबुक पर इसी विषय पर पूरी एक पोस्ट ही लिख मारी।

अपने कृत्य पर कोई खेद नहीं

इन सभी ‘दिग्गजों’ के लिए यह शर्म से डूब मरने वाली खबर थी कि पुलिसिया पूछताछ के शुरू होते ही ‘पीड़ित’ युवक ने अपना सच यह कहकर स्वीकार कर लिया कि इस घटना को उसी ने अपने दो दोस्तों के साथ मिलकर अंजाम दिया था। उसकी पीठ पर जो ‘गंभीर’ घाव था, वह उसने स्वयं ही अपने दोस्तों से कहकर ब्लेड मरवाकर कराया था।  पहले तो उसके दोस्त इसके लिए तैयार नहीं थे, मगर फिर दिगंत के कहने पर इस कार्रवाई को अंजाम देने के लिए मान गए। यह सच दिगंत ने अपने अभिभावकों के सामने एसपी वीरेंद्र सिंह यादव की पूछताछ में स्वीकार किया।

दलित उत्पीड़न की संवेदनशीलता पर सवाल

अब यहां पर जो अत्यंत गंभीर सवाल उठ खड़ा होता है, वह यह है कि ऐसे समय में जबकि दलितों पर अत्याचार का एक लंबा इतिहास रहा है, बार-बार उन्हें प्रताड़ित किया जाता रहा और यह सब उस सरकार के कार्यकाल में निरंतर होता रहा, जिन्होंने इस वर्ग को दशकों तक केवल वोट-बैंक के तौर इस्तेमाल किया। दलितों का सुख-दुख इनके लिए कोई मुद्दा कभी था ही नहीं। अब जब नरेन्द्र मोदी सरकार में दलित-अल्पसंख्यकों के हितों को ध्यान में रखकर अनेक योजनाएं कार्यान्वित हो रही हैं, तब यह वर्ग बुरी तरह से बौखलाया हुआ है। केवल विरोध के लिए विरोध करने की नीति के चलते वे मोदी सरकार के प्रत्येक सराहनीय कार्य की भी आलोचना करने से बाज नहीं आते। ऐसे में जहां दलितों को सचमुच सहायता की जरूरत है, वे भी ऐसे झूठे मामलों की चपेट में आ जाते हैं। भीड़ के पास विवेक नहीं, उन्माद होता है, क्या इतनी सी बात इन आलोचकों और मीडिया घराने की समझ में नहीं आती कि यह विषय कितना संवेदनशील है। यदि वे इस वर्ग की भलाई के लिए कुछ कर नहीं सकते तो जो प्रयास मोदी जी कर रहे हैं, उसमें अड़चन क्यों पैदा कर रहे हैं। क्या दलित, अल्पसंख्यक और अन्य पीड़ित इन लोगों के लिए हमेशा केवल और केवल वोट-बैंक की हद तक ही रहेंगे?

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