सात अगस्त को जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने ट्वीट में लिखा था कि विपक्ष की एकता एक मिथक है और 2019 में फिर भाजपा की सरकार बनेगी। उमर अबदुल्ला ने ये बात प्रचिलत मुहावरे- ‘कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा’ को आधार बनाते हुए कही थी।
The myth of opposition unity has been systematically shown for what it is- a chimera.It’s each 1 for themselves in 2019 & 5 more years 2 BJP https://t.co/uKb8rym8Uu
— Omar Abdullah (@OmarAbdullah) August 7, 2017
दरअसल विपक्षी दलों के विचारों में एका नहीं है और मोदी विरोध के नाम पर इकट्ठा हुए दलों की कोई विश्वसनीयता भी नहीं दिख रही है। उमर अब्दुल्ला द्वारा कही गई ये बात तब फिर जाहिर हुई जब 11 अगस्त को कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विपक्षी दलों की मीटिंग बुलाई। इस मीटिंग के लिए न्योता तो दिया गया था 18 दलों को लेकिन शामिल हुए केवल 13 दल।
मोदी विरोध की कांग्रेस की नीति एक्सपोज
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने शुक्रवार शाम 13 अपोजिशन पार्टियों के नेताओं के साथ मीटिंग की। इसका एजेंडा एनडीए सरकार की जन-विरोधी नीतियां बताया गया। मीटिंग में बुलाया तो 18 पार्टियों को था। लेकिन, आईं सिर्फ 13 पार्टियां। शरद पवार की एनसीपी ने इसका बायकॉट किया। जेडीयू के बागी शरद यादव की जगह अली अनवर शामिल हुए। इतना ही नहीं विपक्षी एकता की सबसे बड़े नामों में शामिल अखिलेश यादव और मायवती भी नहीं पहुंचे। दरअसल मोदी विरोध के नाम पर जमा हो रही इस जमात की न तो कोई नीति है और न ही कोई सिद्धांत। इतना ही नहीं विचारों में भी मतैक्य नहीं हैं। ऐसे में सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर दलों को इकट्ठा करने की कांग्रेस की कोशिशें एक्सपोज होती जा रही हैं।
एनसीपी-कांग्रेस में तनातनी
राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी ने विपक्षी दलों की इस मीटिंग का बहिष्कार किया। दरअसल राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस नेता राज्यसभा के लिए चुनाव में अहमद पटेल की जीत को बढ़ा चढ़ाकर पेश कर रही कांग्रेस ने एनसीपी को कठघरे में खड़ा कर दिया था। कांग्रेस नेताओं ने आशंका जताई थी कि गुजरात के लिए हुए राज्यसभा चुनाव में एनसीपी ने इसे धोखा दिया है। एनसीपी का दावा है कि अहमद पटेल की जीत एनसीपी के कारण मुमकिन हुई है। बहरहाल बायकाट एनसीपी ने कहा है कि पार्टी में कांग्रेस के प्रति नाराजगी है क्योंकि उनपर अहमद पटेल के पक्ष में वोट न डालने का आरोप लगाया गया।
भाजपा की ‘बी’ टीम है एनसीपी !
एनसीपी के सूत्रों के मुताबिक पार्टी में इस बात को लेकर भी कांग्रेस के प्रति नारजगी है कि कांग्रेस एनसीपी को भाजपा की बी टीम बता रही है। दरअसल एनसीपी को लगता है कि कांग्रेस ऐसा जानबूझकर कर रही है ताकि आने वाले गुजरात चुनाव में पार्टी को नुकसान पहुंचे। दूसरी तरफ राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि मौके की नजाकत को समझते हुए एनसीपी ने भी अब एनडीए में शामिल होने का फैसला कर लिया है। हालांकि इस बात की आधिकारिक पुष्टि नहीं की गई है, लेकिन कयास लगाए जा रहे हैं कि ऐसी परिस्थितियां उत्पन्न हो सकती हैं कि एक झटके में ही एनसीपी भी एनडीए में शामिल हो जाए।
माया-अखिलेश एक मंच पर नहीं !
सोनिया गांधी की मीटिंग में सीपीआई, सीपीआई (एम), टीएमसी, आरजेडी, डीएमके, सपा, केरल कांग्रेस, बीएसपी, नेशनल कॉन्फ्रेंस, जेडीएस, जेडीयू (अली अनवर), आरएलडी और एआईयूडीएफ शामिल हुए। कांग्रेस का दावा था कि मायावती और अखिलेश यादव भी मीटिंग में शामिल होंगे। लेकिन दोनों ही मीटिंग में नहीं आए अपने नुमाइंदों को भेज दिया। बताया जा रहा है कि मायावती और अखिलेश यादव एक गठबंधन में शामिल होने से परहेज कर रहे हैं। दरअसल दोनों ही दल वोट बैंक पॉलिटिक्स करते हैं और दोनों ही दलों को आशंका है कि इस फैसले से उनके कोर वोट बैंक पर भी इसका असर पड़ सकता है। दरअसल दोनों ही दलों के लोग विचारों और सिद्धांतों के आधार पर बिल्कुल अलग हैं ऐसे में इन दोनों नेताओं को भी लगता है कि उनके वोट बैंक कहीं उनसे अलग न हो जाएं।
विपक्षी नीतियों में नीतीश ने ‘खोट’ देखा
नीतीश कुमार ने जब विपक्षी दलों का साथ छोड़ने का निर्णय किया को कई सवाल उठे। लेकिन जिस विपक्ष की नीतियां और सिद्धांत सिर्फ व्यक्ति विरोध हो तो नीतीश कुमार जैसे सिद्धांतवादी राजनीतिज्ञ भला अनैतिक गठबंधन का हिस्सा कब तक रहते? बिना एजेंडे के विपक्ष के साथ रहने के बजाय उन्होंने बिहार का हित देखा और विपक्ष का साथ छोड़ दिया। इस बीच बीजेपी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने ट्वीट कर कहा, ”मैं जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) अध्यक्ष नीतीश कुमार से अपने आवास पर शुक्रवार (11 अगस्त ) को मिला। मैंने जेडीयू को एनडीए में शामिल होने का आमंत्रण दिया।’‘ अब ऐसी संभावना है कि जेडीयू 19 अगस्त को पटना में होने वाली अपनी राष्ट्रीय कार्यकारणी की बैठक में एनडीए में शामिल होने के प्रस्ताव को मंजूरी देगा। जाहिर तौर पर जेडीयू के एनडीए में शामिल होने के साथ ही मोदी सरकार की ताकत लोकसभा और राज्यसभा में और बढ़ जाएगी।
कल JD(U) के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री @NitishKumar जी से अपने निवास पर भेंट हुई। मैंने उन्हें JD(U) को NDA में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया।
— Amit Shah (@AmitShah) August 12, 2017
AIADMK भी एनडीए में शामिल होगा
तमिलनाडु की एआईएडीएमके सरकार एनडीए में शामिल हो सकती है। अटकलों ने जोर तब पकड़ा जब मुख्यमंत्री पलानिसामी ने शुक्रवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात की। दोनों नेताओं की मुलाकात के बाद से अंदाजा लगाया जा रहा है कि एआईएडीएमके के दोनों धड़ों के विलय के बाद एआइएडीएमके एनडीए में शामिल हो सकती है। हालांकि ना तो भाजपा की ओर से ना ही एआईएडीएमके के दोनों धड़ों की ओर से इस संबंध में कोई बयान जारी किया गया है। लेकिन कयास लगाए जा रहे हैं कि भाजपा अध्यक्ष अमित शाह भी इस महीने के आखिर में तमिलनाडु जाने वाले हैं जिसे लेकर तमाम तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं।
इसलिए एक नहीं हो पाएगा विपक्ष!
दरअसल अहितकारी नीतियों, योजनाओं का विरोध होना लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए आवश्यक है। लेकिन विपक्षी दलों का सिर्फ मोदी विरोध के नाम पर एक होना किसी भी तरह से नीतिगत नहीं है। कई विरोधी दल चूंकि विपक्ष में इसलिए महज विरोध करने के नाम पर एक दिखना चाहते हैं। लेकिन इसकी कमी यह है कि मोदी विरोध की राजनीति पर चलते हुए रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभा पाने में विफल साबित हो रहे हैं। दरअसल मोदी विरोध का आलम यह है कि केंद्र सरकार कितनी भी अच्छी नीतियां देशहित में क्यों न बना लें, विपक्ष उसके विरोध में हो-हल्ला करता ही है। गलत नीतियों, विचारों का विरोध तो जरूरी है, लेकिन हितकारी नीतियों पर जबरदस्ती विरोध कर देशहित को नुकसान पहुंचाना समझ से परे है।
नोटबंदी पर देश में पैदा किया गतिरोध
8 नवंबर की रात भारतीय अर्थव्यवस्था के लिए काफी अहम था। उस रात नोटबंदी का ऐतिहासिक और साहसिक फैसला लेकर मोदी सरकार ने कालेधन और आतंकवाद पर करारा प्रहार किया था। नोटबंदी से 500 और हजार के पुराने नोटों को चलन से बाहर कर पीएम मोदी ने देश की अर्थव्यवस्था पर झाड़ू चलाई थी। हालांकि, शुरुआत में इस फैसले से लोगों को परेशानियों का सामना करना पड़ा, मगर बाद में इस फैसले का उन्होंने भी स्वागत किया। नीतीश कुमार ने उस समय भी पीएम मोदी के निर्णय की सराहना की थी। लेकिन विपक्ष मोदी विरोध की राजनीति में उलझा रहा। राहुल लाइन में लगे तो ममता बनर्जी ने आंदोलन छेड़ दिया। लेकिन मोदी विरोध के नाम पर उनकी राजनीति पांच राज्यों के चुनाव नतीजों ने हवा कर दी।
बेनामी संपत्ति एक्ट का विरोध
एक नवंबर को ही मोदी सरकार ने बेनामी संपत्ति संशोधन कानून, 2016 को लागू कर दिया था। लेकिन 22 मार्च को वित्त मंत्री अरूण जेटली ने जो वित्त विधेयक पेश किया उसमें इस कानून को और तल्ख कर दिया। इनकम टैक्स विभाग को छापा मारने और बेनामी संपत्ति जब्त करने की ताकत मिल गई। विपक्ष ने इसकी आलोचना की पर नीतीश चुप रहे। उनकी मौन सहमति यहां भी मोदी के साथ थी। आज लालू यादव यादव का परिवार हो या फिर देश के कई ऐसे रसूखदार लोग जिन्होंने बेनामी संपत्ति जमा की है वो जांच एजेंसियों की राडार पर हैं।
सर्जिकल स्ट्राइक का विरोध
राजनीतिक विरोध अपनी जगह है लेकिन संकट के समय देश एक स्वर में बोलता है। विपक्ष की नकारात्मक राजनीति ने देश को शर्मसार करने का काम किया। खास तौर पर कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के सवालों ने सेना को भी कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। दरअसल सर्जिकल स्ट्राइक पर पाकिस्तान तो सवाल उठा ही रहा था, साथ में देश के विपक्षी नेताओं ने भी सवाल उठाने शुरू कर दिए थे। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने तो सरकार से इसके सबूत भी मांगने शुरू कर दिये। कांग्रेस के प्रमुख नेता पी. चिदंबरम और फिर संजय निरुपम ने तो सेना की साख पर ही सवाल खड़े कर दिये थे।
जीएसटी का विरोध
देश की आर्थिक आजादी की नयी कहानी लिखने वाला वस्तु एवं सेवा कर यानि जीएसटी एक जुलाई से लागू हो चुका है। लेकिन इसके लागू होने की प्रक्रिया में विपक्ष के कई दल रोड़े अटकाते रहे हैं। ‘वन नेशन, वन टैक्स’ की नीति देश की अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए है, देश में पूंजी निवेश बढ़ाने के लिए है, जनता की सहूलियत के लिए है। लेकिन विपक्ष को तो केंद्र सरकार के हर निर्णय का विरोध करना होता है इसलिए विरोध करते रहे। अपनी राजनीति के सामने देशहित से भी खिलवाड़ करता रहा।
सेंट्रल हॉल में कार्यक्रम का विरोध
वस्तु एवं सेवा कर (GST) को लागू करने के लिए कांग्रेस 30 जून की आधी रात को संसद की विशेष बैठक के बहिष्कार की घोषणा कर दी। कांग्रेस ने दलील यह दी कि 1947 में आजादी, 1972 में आजादी की सिल्वर जुबली और 1997 में आजादी की गोल्डन जुबली के कार्यक्रम आधी रात को सेंट्रल हॉल में आयोजित हुए थे। यानि आधी रात को संसद में जो भी कार्यक्रम हुए हैं वह आजादी से जुड़े हुए हैं और जीएसटी को इस तरह लागू करना वह संसद की गरिमा के खिलाफ है। लेकिन विरोध करते हुए कांग्रेस यह शायद भूल गई कि 29 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेश वाले देश में वन नेशन, वन टैक्स लागू करना ही अपने आप में मील का पत्थर है। यह भी आर्थिक आजादी की ही रात थी। लेकिन विपक्ष ने तो जैसे अपना सिद्धांत ही बना लिया है किसी भी स्तर पर जाकर विरोध करना है।
आतंकवाद पर सख्ती का विरोध
8 मार्च को लखनऊ के बाहरी इलाके ठाकुरगंज में एक घर में लगभग 13 घंटे तक चली मुठभेड़ के बाद पुलिस ने आतंकवादी सैफुल्ला को मार गिराया। सैफल्ला के पिता ने भी उसे आतंकी माना और लाश लेने से इनकार कर दिया। लेकिन कांग्रेस कहां मानने वाली थी। उसने संसद में सवाल उठा दिया। बजट सत्र के दूसरे सेशन में संसद शुरू होने पर कांग्रेस नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी ने मामला उठाते हुए कहा कि जब संदिग्ध सैफुल्लाह के आतंकी संगठन आईएस से जुड़े होने के सबूत नहीं थे तो उसे मारा क्यों गया? जाहिर है खुद जिसके पिता ने आतंकी माना, कांग्रेस अपनी कुत्सित राजनीति के कारण उसे आतंकी मानने को तैयार नहीं थी।
आर्मी चीफ पर लेफ्ट-कांग्रेस का हमला
कांग्रेस और लेफ्ट के बड़े नेता हों या छोटे नेता सब के सब जाने किस बौखलाहट में हैं। कभी देशद्रोही ताकतों के साथ हो लेते हैं तो कभी देश का नक्शे से खिलवाड़ करते हैं तो कभी अपनी ही आर्मी, जिसकी पूरी दुनिया में तारीफ होती है उसके प्रमुख को ही ‘सड़क का गुंडा’ कह देती है। कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता संदीप दीक्षित ने तो आर्मी चीफ को ‘सड़क का गुंडा’ तक कह डाला। प्रकाश करात ने तो मानवाधिकार का मुद्दा तक उठा दिया। लेकिन देश ने उनकी बात को अनसुना कर दिया और अपने आर्मी चीफ का साथ रहा।
बीते दिनों देश के पूर्व गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कश्मीर में सेना की कार्रवाई पर ही सवाल खड़े कर दिए थे। अब चिदंबरम साहब से ज्यादा कश्मीर के हालत के बारे में किसे पता हो सकता है? लेकिन कांग्रेस अपनी कुत्सित राजनीति के कारण सेना पर ही सवाल खड़े करने लगी है। आखिर कांग्रेस ऐसी बातें क्यों करती है जो देश की संप्रभुता और शांति पर ही खतरा उत्पन्न कर दे।
मानव ढाल पर कांग्रेस के सवाल
आर्मी द्वारा एक कश्मीरी पत्थरबाज को मानव ढाल बनाए जाने को लेकर कांग्रेस ने तीखे हमल किये थे। मानवाधिकार से लेकर कश्मीरियत का मुद्दे के साथ राजनीति करने की कुत्सित कोशिश की। मेजर गोगोई जिनके आदेश पर यह किया गया था उन्हें कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की। लेकिन देश की जनता और केंद्र की सरकार मेजर गोगोई के इस फैसले के साथ थी। ज्यादातर राजनीतिक दलों ने भी सेना के उठाए गए इस कदम की तारीफ की, लेकिन कांग्रेस और वामपंथी दलों ने इसका पुरजोर विरोध किया था।
आधार कार्ड की अनिवार्यता का विरोध
नोटबंदी के बाद भ्रष्टाचार पर जब जबरदस्त प्रहार हुआ तो सबसे ज्यादा दर्द पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को हुआ है। वे कहती हैं कि भले ही वो मरें या जिएं पीएम मोदी को राजनीति से विदा करके रहेंगी। सोते, जागते, उठते, बैठते हर समय उनका अब एक ही मकसद दिख रहा है-मोदी विरोध। मोदी विरोध के नाम पर अब बैंक में खाता खोलने के लिए आधार नंबर को अनिवार्य किए जाने का विरोध कर रही है। हवाला निजता का दिया… लेकिन उद्देश्य वोटबैंक के लिए… मोदी विरोध… देश विरोध!
मोदी विरोध के नाम पर देश विरोध
पिछले तीन साल में पीएम मोदी का जितना विरोध किया गया है शायद ही भारतीय इतिहास में ऐसा कभी हुआ हो। विपक्षी दल मोदी विरोध की राजनीति में यह भी नहीं देखते कि मामला देशहित से जुड़ा है। सबसे अधिक शोर गुल उस राजनैतिक दल ने मचाया जिसे विगत चुनावों में जनता ने सिरे से ख़ारिज कर दिया था। अन्य विरोधियों के साथ मिलकर इतना हो हल्ला जैसे चुनाव जीतने और सत्ता में आने का भाजपा को कोई नैतिक और वैध अधिकार ही न हो। इतना तीव्र विरोध तो कांग्रेस ने विदेशी शासकों का भी कभी नहीं किया होगा।
स्वच्छता अभियान का विरोध, योग दिवस का विरोध, शौचालय बनवाने और लोगों को उसकी प्रेरणा देने का विरोध, नोटबंदी का विरोध, गौहत्या पर लगाई गई रोक का विरोध, सर्जिकल स्ट्राइक, आतंकवादियों व अलगाववादियों तथा पत्थरबाजों के विरुद्ध की गई कार्रवाइयों का विरोध और न जाने क्या क्या, हर रोज हर बात का विरोध। प्रधानमंत्री मोदी देश में रहें तो भी विरोध और विदेश यात्रा पर हों तो उनका भी विरोध। केवल और केवल विरोध।
बहरहाल 2014 के बाद गंगा में काफी पानी बह चुका है और नरेंद्र मोदी का विरोध अब मायने नहीं रखता। देश के 18 राज्यों में अब भाजपा या भाजपा के सहयोग से चलने वाली सरकारें हैं। लेकिन विपक्षी दल शायद अब भी मोदी विरोध की राह को छोड़ने को तैयार नहीं है। लेकिन इतना तय है कि विपक्षी दलों के शोरगुल के बीच जनता देशहित के निर्णयों को भलि-भांति जानती है और समझती है।